ग्रहों का स्वभाव और प्रभाव
किस ग्रह का स्वभाव और प्रभाव कैसा है और उसके द्वारा किन बातों का विचार किया जाता है, इसे नीचे लिखे अनुसार समझना चाहिए :
(1) सूर्य – यह ग्रह पुरुष जाति, रक्त वर्ण, पित्त प्रकृति तथा पूर्व दिशा का स्वामी है। यह आत्मा, आरोग्य, स्वभाव, राज्य, देवालय का सूचक एवं पितृकारक है। इसके द्वारा शारीरिक रोग, मंदाग्नि, अतिसार, सिरदर्द, क्षय, मानसिक रोग, नेत्र विकार, उदासी, शोक, अपमान, कलह आदि का विचार किया जाता है। मेरुदंड, स्नायु, कलेजा, नेत्र आदि अवयवों पर इसका विशेष प्रभाव होता है। इससे पिता के सम्बन्ध में विचार किया जाता है।
सूर्य लग्न से सप्तम स्थान में बली तथा मकर राशि से छह राशियों तक चेष्टाबली होता है। सूर्य को पाप ग्रह माना गया है।
(2) चन्द्रमा – यह ग्रह स्त्री जाति, श्वेत वर्ण, जलीय तथा पश्चिमोत्तर दिशा का स्वामी है। यह मन, चित्तवृत्ति, शारीरिक, स्वास्थ्य, सम्पत्ति, राजकीय अनुग्रह, माता पिता तथा चतुर्थ स्थान का कारक है। इसके द्वारा पाण्डु रोग (पीलिया), कफज तथा जलीय रोग, मूत्रकृच्छ, मानसिक रोग, स्त्रीजन्य रोग, पीनस, निरर्थक भ्रमण, उदर तथा मस्तक सम्बन्धी विचार किया जाता है। यह रक्त का स्वामी है तथा वातश्लेष्मा इसकी धातु है।
चन्द्रमा लग्न से चतुर्थ स्थान में बली तथा मकर से छह राशियों में चेष्टाबली होता है। कृष्ण पक्ष की षष्ठी से शुक्ल पक्ष की दशमी तक चन्द्रमा क्षीण रहता है। इस अवधि से चन्द्रमा को पाप ग्रह माना जाता है। शुक्ल पक्ष की दशमी से कृष्ण पक्ष की पंचमी तक चन्द्रमा पूर्ण ज्योतिवान् रहता है। इस अवधि में इसे शुभ ग्रह तथा बली माना जाता है। बली चन्द्रमा ही चतुर्थ भाव में अपना पूर्ण फल प्रदान करता है, क्षीण चन्द्रमा नहीं देता।
(3) मंगल – यह ग्रह पुरुष जाति, रक्त वर्ण, दक्षिण दिशा का स्वामी, अग्नि तत्त्व वाला तथा पित्त प्रकृति का है। यह धैर्य तथा पराक्रम का स्वामी, भाई बहन का कारक तथा रक्त एवं शक्ति का नियामक कारक है। ज्योतिष शास्त्र में इसे पाप ग्रह माना गया है। यह उत्तेजित करने वाला, तृष्णाकारक तथा सदैव दुःखदायक रहता है।
मंगल तीसरे तथा छठे स्थान में बली होता है, दशम स्थान में दिग्बली होता है, चन्द्रमा के साथ रहने पर चेष्टाबली होता है तथा द्वितीय स्थान में निष्फल (बलहीन) होता है।
(4) बुध – यह ग्रह नपुंसक जाति, श्याम वर्ण, उत्तर दिशा का स्वामी, त्रिदोष प्रकृति तथा पृथ्वी तत्त्व वाला है। यह ज्योतिष, चिकित्सा, शिल्प, कानून, व्यवसाय, चतुर्थ स्थान तथा दशम स्थान का कारक है। इसके द्वारा गुप्तरोग, संग्रहणी, वातरोग, श्वेत कुष्ठ, गूंगापन, बुद्धिभ्रम, विवेक, शक्ति, जिह्वा तथा तालु आदि शब्द के उच्चारण से सम्बन्धित अवयवों का विचार किया जाता है।
बुध, सूर्य, मंगल, राहु, केतु तथा शनिश्चर – इन अशुभ ग्रहों के साथ ही तो अशुभ फल देता है और पूर्ण चन्द्रमा, गुरु अथवा शुक्र – इन शुभ ग्रहों के साथ हो, तो शुभ फलदायक रहता है। यदि यह (बुध) चतुर्थ स्थान में बैठा हो, तो निष्फल रहता है।
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार बुध जैसे ग्रहों के साथ हो, वैसा ही शुभ अथवा पाप ग्रह बन जाता है। अकेला हो, तो शुभ ग्रह है।
(5) बृहस्पति (गुरु) – यह ग्रह पुरुष जाति, पीत वर्ण, पूर्वोत्तर दिशा का स्वामी तथा आकाश-तत्त्व वाला है। यह कफ धातु तथा चर्बी की वृद्धि करता है। इसके द्वारा शोथ (सूजन), गुल्म आदि रोग, घर, विद्या, पुत्र, पौत्र आदि का विचार किया जाता है । इसे हृदय की शक्ति का कारक भी माना जाता है।
बृहस्पति (गुरु) लग्न में बैठा हो, तो बली होता है और यदि चन्द्रमा के साथ कहीं बैठा हो, तो चेष्टावली होता है। यह शुभ ग्रह है। इसके द्वारा पारलौकिक एवं आध्यात्मिक सुखों का विशेष विचार किया जाता है।
(6) शुक्र – यह ग्रह स्त्री जाति, श्याम गौर वर्ण, दक्षिण-पूर्व दिशा का स्वामी, कार्य कुशल तथा जलीय तत्त्व वाला है। यह कफ, वीर्य आदि धातुओं का कारक माना जाता है। इसके प्रभाव से जातक के शरीर का रंग गेहुआं होता है। यह काव्य-संगीत, वस्त्राभूषण, वाहन, शैया, पुष्प, आंख, स्त्री (पत्नी) तथा कामेच्छा आदि का कारक है। इसके द्वारा चतुरता एवं सांसारिक सुख सम्बन्धी विचार किया जाता है। यदि जातक का जन्म दिन में हुआ हो, तो शुक्र के द्वारा माता के सम्बन्ध में भी विचार किया जाता है।
शुक्र छठे स्थान में बैठा हो, तो निष्फल होता है और यदि सातवें स्थान में हो, तो अनिष्टकर होता है। ज्योतिष शास्त्र ने शुक्र को शुभ ग्रह माना है। इसके द्वारा सांसारिक तथा व्यावहारिक सुखों का विशेष विचार किया जाता है।
(7) शनिश्चर – यह ग्रह नपुंसक जाति, कृष्ण वर्ण, पश्चिम दिशा का स्वामी, वायु तत्त्व तथा वातश्लेष्मिक प्रकृति का है। इसके द्वारा आयु, शारीरिक बल, दृढ़ता, विपत्ति, प्रभुता, मोक्ष, यश, ऐश्वर्य, नौकरी, योगाभ्यास, विदेशी भाषा एवं मूर्च्छा आदि रोगों का विचार किया जाता है। यदि जातक का जन्म रात्रि में हुआ हो, तो यह माता और पिता का कारक होता है।
शनिश्चर सप्तम स्थान में बली होता है तथा किसी वक्री ग्रह अथवा चन्द्र के साथ रहने पर चेष्टाबली होता है। शनिश्चर क्रूर तथा पाप ग्रह है, परन्तु इसका अंतिम परिणाम सुखद होता है। यह मनुष्य को दुर्भाग्य तथा संकटों के चक्कर में डालकर, अंत में उसे शुद्ध तथा सात्त्विक बना देता है।
(8) राहु – यह कृष्ण वर्ण, दक्षिण दिशा का स्वामी तथा क्रूर ग्रह है। यह जिस स्थान पर बैठता है, वहां की उन्नति को रोक देता है। यह गुप्त युक्तिबल, कष्ट तथा त्रुटियों का कारक है।
(9) केतु – यह कृष्ण वर्ण तथा क्रूर ग्रह है। इसके द्वारा नाक, हाथ पांव, क्षुधा जनित कष्ट एवं चर्मरोग आदि का विचार किया जाता है। यह गुप्त शक्ति, बल, कठिन कर्म, भय की कमी का कारक है। कुछ स्थितियों में केतु शुभ ग्रह भी माना जाता है।
राशि स्वामी
कौन सा ग्रह किस राशि का स्वामी है, इसे नीचे लिखे अनुसार समझना चाहिए :
• मेष (1) एवं वृश्चिक (8) – इन दोनों राशियों के स्वामी मंगल हैं।
• वृष (2) एवं तुला (7) – इन दोनों राशियों के स्वामी शुक्र हैं।
• मिथुन (3) एवं कन्या (6) – इन दोनों राशियों के स्वामी बुध हैं।
• कर्क (4) – इस राशि के स्वामी चन्द्रमा हैं।
• सिंह (5) – इस राशि के स्वामी सूर्य हैं।
• धनु (9) एवं मीन (12) – इन दोनों राशियों के स्वामी बृहस्पति (गुरु) हैं।
• मकर (10) एवं कुम्भ (11) – इन दोनों राशियों के स्वामी शनिश्चर हैं।
विशेष – राहु एवं केतु – ये दोनों छाया ग्रह हैं अतः ये किसी पृथक राशि के स्वामी नहीं हैं फिर भी कुछ ज्योतिष शास्त्रियों ने राहु को कन्या राशि का स्वामी तथा केतु को मिथुन राशि का स्वामी माना है।
निम्नांकित सारिणी में राशि और राशि स्वामियों को प्रदर्शित किया गया है :

ग्रह का राशि भोग
कौन सा ग्रह एक राशि पर कितने समय तक रहता है, इसे नीचे लिखे अनुसार समझना चाहिए :
• सूर्य – एक मास।
• चन्द्रमा – सवा दो दिन।
• मंगल – डेढ़ मास।
• बुध – पौन मास।
• बृहस्पति (गुरु) – तेरह मास।
• शुक्र – पौन मास।
• शनिश्चर – ढ़ाई वर्ष।
• राहु – डेढ़ वर्ष।
• केतु – डेढ़ वर्ष।
टिप्पणी – सूर्य, चन्द्रमा, राहु तथा केतु के अतिरिक्त शेष पांचों ग्रह – मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र तथा शनिश्चर – कभी-कभी वक्री, मार्गी अथवा अतिचारी हो जाया करते हैं, जिसके कारण ये ग्रह एक राशि पर अपनी निश्चित अवधि के समय को एक साथ लगातार भोगने के अतिरिक्त कुछ आगे-पीछे भी भोगा करते हैं। किस समय कौन-सा ग्रह मार्गी, वक्री अथवा अतिचारी है, इसकी जानकारी पंचांग (पत्रा) के द्वारा की जा सकती है। यदि किसी जातक के जन्म के समय कोई ग्रह वक्री, मार्गी अथवा अतिचारी होता है, तो वह उसे जीवन भर उसी प्रकार का फल देता रहता है।
ग्रहों का पारस्परिक सम्बन्ध
कौन सा ग्रह किस दूसरे ग्रह का मित्र, शत्रु अथवा सम है, इसे नीचे लिखे अनुसार समझना चाहिए :
(1) सूर्य ग्रह के चन्द्रमा, मंगल तथा बृहस्पति (गुरु) मित्र हैं, शुक्र तथा शनिश्चर शत्रु हैं एवं बुध सम हैं।
(2) चन्द्रमा के सूर्य तथा बुध मित्र हैं एवं मंगल, शुक्र, शनिश्चर तथा बृहस्पति सम हैं।
(3) मंगल के सूर्य, चन्द्रमा तथा गुरु मित्र हैं, बुध शत्रु हैं तथा शुक्र और शनिश्चर सम हैं।
(4) बुध के सूर्य तथा शुक्र मित्र हैं, चन्द्रमा शत्रु है एवं मंगल, बृहस्पति (गुरु) तथा शनिश्चर सम हैं।
(5) बृहस्पति (गुरु) के सूर्य, चन्द्रमा तथा मंगल मित्र हैं, शुक्र और बुध शत्रु हैं तथा शनिश्चर सम है।
(6) शुक्र के बुध तथा शनिश्चर मित्र हैं, सूर्य और चन्द्रमा शत्रु हैं तथा मंगल एवं बृहस्पति (गुरु) सम हैं।
(7) शनिश्चर के बुध तथा शुक्र मित्र हैं, सूर्य, चन्द्रमा एवं मंगल शत्रु हैं तथा बृहस्पति (गुरु) सम हैं।
(8) राहु के शुक्र तथा शनिश्चर मित्र हैं, सूर्य, चन्द्रमा, मंगल एवं केतु शत्रु हैं तथा बुध एवं बृहस्पति (गुरु) सम हैं।
(9) केतु के मंगल तथा शुक्र मित्र हैं। सूर्य, चन्द्रमा, शनिश्चर एवं राहु शत्रु हैं तथा बुध एवं बृहस्पति (गुरु) सम हैं।
नीचे दिए गए सारिणी में उक्त नवग्रहों के पारस्परिक शत्रु एवं मैत्री सम्बन्ध को एक दृष्टि में प्रदर्शित किया गया है :

आवश्यक टिप्पणी –
(1) कुछ विद्वानों के मत से चन्द्रमा बृहस्पति (गुरु) से शत्रुता मानते हैं।
(2) राहु तथा केतु छाया ग्रह हैं, अतः ग्रहों के ‘निसर्ग मैत्री सारिणी’ में इन दोनों का उल्लेख नहीं किया गया है। विद्वानों के मतानुसार राहु और केतु ये दोनों ग्रह शुक्र तथा शनिश्चर से मित्रता रखते हैं एवं सूर्य, चन्द्रमा, मंगल एवं बृहस्पति (गुरु) – इन चारों ग्रहों से शत्रुता रखते हैं। बुध इन दोनों (राहु और केतु) के लिए सम है। इसी प्रकार सूर्य, चन्द्रमा, मंगल तथा बृहस्पति (गुरु) – ये चारों ग्रह राहु तथा केतु से शत्रुता मानते हैं। शुक्र और शनिश्चर राहु तथा केतु के मित्र हैं तथा बुध इन दोनों से सम भाव रखता है।
द्वादश भाव
जन्म कुण्डली में बारह खाने या घर होते हैं। इन्हें ‘भाव’ कहा जाता है।

ऊपर दी गई उदाहरण कुण्डली में इन द्वादश भावों को प्रदर्शित किया गया है। जन्म कुण्डली के बारह भावों के नाम क्रमशः इस प्रकार हैं :
1. तन, 2. धन, 3. सहज, 4. सुहृद्, 5. पुत्र, 6. रिपु, 7. जाया (स्त्री), 8. आयु 9. धर्म, 10. कर्म, 11. लाभ, 12. व्यय।
द्वादश भावों का परिचय
जन्म कुण्डली के द्वादश भावों के नाम ऊपर बताए जा चुके हैं। इन भावों के विभिन्न नाम तथा इनके द्वारा किन-किन बातों का विचार किया जाता है, इसे नीचे लिखे अनुसार समझना चाहिए :
(1) प्रथम भाव – इसे ‘तन’ के अतिरिक्त लग्न, वपु, कल्प, अंग, उदय, आत्मा, शरीर, देह, होरा, केन्द्र, कण्टक, आद्य, मूर्ति, चतुष्टय तथा प्रथम भाव भी कहा जाता है।
इस भाव के द्वारा जातक के स्वरूप, जाति, आयु, विवेक, मस्तिष्क, शील, चिह्न, सुख-दुःख तथा आकृति आदि के सम्बन्ध में विचार किया जाता है।
इस भाव का कारक ‘सूर्य’ हैं। इसमें मिथुन, कन्या, तुला तथा कुम्भ इनमें से कोई राशि हो, तो उसे बलवान माना जाता है।
लग्नेश की स्थिति और बलाबल के अनुसार इस भाव से जातक के जातीय उन्नति-अवनति तथा कार्य कुशलता का ज्ञान प्राप्त किया जाता है।
(2) द्वितीय भाव – इसे ‘धन’ के अतिरिक्त अर्थ, कुटुम्ब, द्रव्य, कोश, वित्त, स्व, पणफर तथा द्वितीय भाव भी कहा जाता है। इस भाव के कारक बृहस्पति अर्थात् ‘गुरु’ हैं।
इस भाव के द्वारा जातक के स्वर, सौंदर्य, आँख, नाक, कान, गायन, प्रेम, कुल, मित्र, सत्यवादिता, सुखोपभोग, बंधन, क्रय-विक्रय एवं स्वर्ण, चाँदी, मणि, रत्न, आदि संचित पूंजी के सम्बन्ध में विचार किया जाता है।
(3) तृतीय भाव – इसे ‘सहज’ के अतिरिक्त पराक्रम, भ्रातृ, उपचय, दुश्चिक्य, आपोक्लिम तथा तृतीय भाव भी कहा जाता है। इस भाव के कारक ‘मंगल’ हैं।
इस भाव के द्वारा जातक के पराक्रम, कर्म, साहस, धैर्य, शौर्य, आयुष्य, सहोदर, नौकर-चाकर, गायन, योगाभ्यास, क्षय, श्वास, खांसी तथा दमा आदि के सम्बन्ध में विचार किया जाता है।
(4) चतुर्थ भाव – इसे ‘सुहृद्’ के अतिरिक्त सुख, गृह, कंटक, तूर्य, हिबुक, वाहन, यान, अम्बु, बन्धु, पाताल, केन्द्र तथा चतुर्थ भाव भी कहा जाता है।
इस भाव के द्वारा जातक के सुख, गृह, ग्राम, मकान, सम्पत्ति, बाग-बगीचा, चतुष्पद, माता-पिता का सुख, अंतःकरण की स्थिति, दया, उदारता, छल, कपट, निधि, यकृत तथा पेट के रोग आदि के सम्बन्ध में विचार किया जाता है। इस भाव के कारक ‘चन्द्रमा’ है। इस स्थान को विशेषकर माता का स्थान माना जाता है।
(5) पंचम भाव – इसे ‘पुत्र’ के अतिरिक्त सुत, तनुज, बुद्धि, विद्या, आत्मज, वाणी, पणफर, त्रिकोण तथा पंचम भाव भी कहा जाता है।
इस भाव का कारक बृहस्पति अर्थात् ‘गुरु’ हैं। इस भाव के द्वारा जातक की बुद्धि, विद्या, विनय, नीति, देवभक्ति, संतान, प्रबंध व्यवस्था, मामा का सुख, धन मिलने के उपाय, अनायास बहुत से धन की प्राप्ति, नौकरी छूटना, हाथ का यश, मूत्र-पिण्ड, वस्ति एवं गर्भाशय आदि के सम्बन्ध में विचार किया जाता है।
(6) षष्ठम् भाव – इसे ‘रिपु’ के अतिरिक्त द्वेष, शत्रु, क्षत, वैरी, रोग, नष्ट, त्रिक, उपचय, आपोक्लिम तथा षष्ठम् भाव भी कहा जाता है।
इस भाव के कारक ‘मंगल’ हैं। इस भाव के द्वारा जातक के शत्रु, चिन्ता, संदेह, जागीर, मामा की स्थिति, यश, गुदा स्थान, पीड़ा, रोग तथा व्रण आदि के सम्बन्ध में विचार किया जाता है।
(7) सप्तम भाव – इसे ‘जाया’ के अतिरिक्त स्त्री, मदन, काम, सौभाग्य, जामित्र केन्द्र तथा सप्तम भाव भी कहा जाता है।
इस भाव के द्वारा जातक की स्त्री, मृत्यु, कामेच्छा, कामचिन्ता, सहवास, विवाह, स्वास्थ्य, जननेन्द्रिय, अंग विभाग, व्यवसाय, झगड़ा झंझट तथा बवासीर का रोग आदि के सम्बन्ध में विचार किया जाता है। इस भाव के कारक ‘शुक्र’ हैं। इस भाव में वृश्चिक राशि हो, तो उसे बलवान माना जाता है।
(8) अष्टम भाव – इसे ‘आयु’ के अतिरिक्त त्रिक, रन्ध्र, जीवन, चतुरस्र, पणफर तथा अष्टमभाव भी कहा जाता है। इस भाव के कारक ‘शनिश्चर’ हैं।
इस भाव के द्वारा जातक की आयु, जीवन, मृत्यु, मृत्यु के कारण, व्याधि, मानसिक चिन्ता, झूठ, पुरातत्त्व, समुद्र-यात्रा, संकट, लिंग, योनि तथा अंडकोष के रोग आदि के सम्बन्ध में विचार किया जाता है।
(9) नवम भाव – इसे ‘धर्म’ के अतिरिक्त पुण्य, भाग्य, त्रिकोण तथा नवम भाव भी कहा जाता है। इस भाव के कारक बृहस्पति अर्थात् ‘गुरु’ हैं।
इस भाव के द्वारा जातक के तप, शील, धर्म, विद्या, प्रवास, तीर्थ यात्रा, दान, मानसिक वृत्ति, भाग्योदय तथा पिता का सुख आदि के सम्बन्ध में विचार किया जाता है।
(10) दशम भाव – इसे ‘कर्म’ के अतिरिक्त व्योम, गगन, नभ, रव, मध्य, आस्पद, मान, आज्ञा, व्यापार, केन्द्र तथा दशम भाव भी कहा जाता है। इस भाव के कारक ‘बुध’ हैं।
इस भाव के द्वारा जातक के अधिकार, ऐश्वर्य भोग, यश प्राप्ति, नेतृत्व, प्रभुता, मान प्रतिष्ठा, राज्य, नौकरी, व्यवसाय तथा पिता के सम्बन्ध में विचार किया जाता है। इस भाव में मेष, सिंह, वृष तथा मकर राशि का पूर्वार्द्ध एवं धनु राशि का उत्तरार्द्ध बलवान् होता है।
(11) एकादश भाव – इसे ‘लाभ’ के अतिरिक्त आय, उत्तम, उपचय, पणफर तथा एकादश भाव भी कहा जाता है। इस भाव के कारक बृहस्पति अर्थात् ‘गुरु’ हैं।
इस भाव के द्वारा जातक की सम्पत्ति, ऐश्वर्य, मांगलिक कार्य, वाहन, रत्न आदि के सम्बन्ध में विचार किया जाता है।
(12) द्वादश भाव – इसे ‘व्यय’ के अतिरिक्त प्रात्य, त्रिक, रिष्फ, अंतिम तथा द्वादश भाव कहा जाता है। इस भाव के कारक ‘शनिश्चर’ हैं।
इस भाव के द्वारा जातक की हानि, व्यय, दण्ड, व्यसन, रोग, दान तथा बाहरी सम्बन्ध आदि के बारे में विचार किया जाता है।
आगे उदाहरण स्वरूप जन्मांक चक्र (चार्ट) में किस-किस भाव के द्वारा किस-किस विषय के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त की जाती है, इसे प्रदर्शित किया गया है :

इस द्वितीय जन्मांक चक्र (चार्ट) में उदाहरण स्वरूप किस भाव का कौन-कौन सा ग्रह कारक (स्वामी) होता है, इसे प्रदर्शित किया गया है :
